देश की अर्थव्यवस्था में गहरी बीमारी के लक्षण दिख रहे हैं. विकास की रफ्तार काफी धीमी हो चली है और सरकार के पास खर्च बढ़ाने की राजकोषीय गुंजाइश फिलहाल बेहद कम है. कॉर्पोरेट और घरेलू देनदारी बढ़ रही है और वित्तीय क्षेत्र के कई हिस्से गहरे संकट से ग्रस्त हैं. बेरोजगारी,आवरणकथाअर्थव्यवस्थामेंजांनफूंकनेकेनुस्खे खासकर नौजवनों के बीच लगातार छलांग लगा रही है, जिससे युवा नाराजगी के विस्फोट की आशंकाएं घिर आई हैं. मूडीज ने भारत की क्रेडिट रेटिंग को लेकर चेतावनी की घंटी बजा दी है.2017 के आखिर में, नोटबंदी जैसे गलत फैसले और माल तथा सेवा कर (जीएसटी) के बहुत खराब क्रियान्वयन के बावजूद, मूडीज ने भारत की रेटिंग में सुधार किया था, इसलिए मूडीज पर पूर्वाग्रह का आरोप शायद ही लगाया जा सके. सरकार बार-बार 2024 तक देश में पचास खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था का क्चवाब दिखा रही है. इसके लिए अर्थव्यवस्था में सालाना 8-9 प्रतिशत की वास्तविक वृद्धि दर्ज करने की दरकार मौजूदा वक्त से ही है. तो, यह दावा महज खुशफहमी जैसा लगता है. आखिर क्या गड़बड़ी है और इसे कैसे ठीक किया जा सकता है?हालांकि आर्थिक मोर्चे की बदहाली से सरकार की सफलताओं में कोई अड़चन नहीं दिखती. महाराष्ट्र में हालिया पराजय से पहले तक अपने राजनैतिक और सामाजिक एजेंडे पर सरकार ने लगातार सफलताएं हासिल कीं, चाहे वह जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करना हो या अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण. फिर भी ये एक ही सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं. जिन वजहों से सरकार अपने राजनैतिक और सामाजिक एजेंडे में सफल रही है, वास्तव में वही उसकी विकास की महत्वाकांक्षाओं के पूरा नहीं होने की वजह भी हो सकती है.यह सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 में कार्यभार संभालने के वक्त कई समस्याएं विरासत में मिलीं. बड़ी संख्या में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण की कठिनाइयों, कोयले या गैस जैसे इनपुट की कमी या सरकारी मंजूरी में लेट-लतीफी के कारण ठप हो गईं. बिजली पैदा करने वाली कंपनियां मुश्किल में आ गईं क्योंकि बुरी तरह से कर्ज में डूबी बिजली वितरण कंपनियां समय पर भुगतान नहीं कर रहीं थीं या फिर बिजली की खरीद बंद ही कर दी. मांग के अनुरूप बिजली की आपूर्ति न होने के बावजूद देश बिजली की अतिरिक्त क्षमता की विचित्र असंगति के दौर से गुजरा. ज्यादातर कंपनी प्रमोटर वित्तीय संकट में घिर गए इसलिए बैंकों की बैलेंस-शीट पर खोटा कर्ज बढ़ता चला गया जिससे नए कर्ज का प्रवाह धीमा हो गया. कृषि क्षेत्र भी बदहाल था. एक हद तक तो यह दशकों के गलत मूल्य निर्धारण और सब्सिडी के रूप में गलत सरकारी हस्तक्षेप के कारण हुआ जिसका परिणाम है कि पानी की किल्लत वाला देश, चावल का निर्यात कर रहा था, जिसकी फसल को सबसे ज्यादा पानी चाहिए. दूसरे, कुछ हद तक यह उपेक्षा का नतीजा था, एक के बाद एक लगातार कई सरकारों ने कृषि पैदावार खेत से लेकर उपभोक्ता तक पहुंचने के क्रम में मुनाफा कमाने वाले कई स्तरों के बिचौलियों को खत्म करने के कोई गंभीर प्रयास नहीं किए; अलबत्ता सरकारों ने नई तकनीकों, बीजों या भूमि तक किसान की पहुंच को बेहतर बनाने के बजाय संसाधनों की कमी से जूझते देश का संसाधन कर्ज माफी, गलत तरीके से नकद ट्रांसफर वगैरह में गंवा दिया. प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ अपने गुजरात के रिकॉर्ड से ही नहीं चुने गए कि वे विरासत की ऐसी समस्याओं को खत्म कर देंगे, बल्कि आवश्यक सुधारों के अपने वादे के लिए भी चुने गए, जो आर्थिक वृद्धि और रोजगार बढ़ाएगा. सुधारों की लंबे समय से सख्त जरूरत थी. विकास को गति देने वाले उदारीकरण के दौर के सुधार 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में अलग-अलग राजनैतिक झुकावों वाली सरकारों ने किए, इन सुधारों के जरिए अर्थव्यवस्था की कुछ बेडिय़ां तोड़ी गईं. मसलन, कारोबार शुरू करने के लिए लाइसेंस पाने की दिक्कतें, कुछ क्षेत्रों को केवल छोटे व्यवसायों या फिर सरकार के लिए सुरक्षित रखना और भारतीय व्यापार को गैर-प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए उच्च शुल्क के प्रावधान. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ही अंतिम सरकार थी जिसने लगातार सुधार पर ध्यान केंद्रित रखा लेकिन वह कारोबारी माहौल, श्रम, भूमि और सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका जैसे सबसे कठिन सुधारों की ओर बढ़ पाती, चुनाव हार गई.2004-2009 की यूपीए सरकार में विकास को गति देने वाले सुधारों को पारित करने की आंतरिक सहमति नहीं थी, जबकि 2009-2014 में दोबारा सत्ता में आई सरकार घोटालों और विपक्ष के असहयोग के कारण पंगु हो गई. पार्टियों के बीच सर्वसम्मति केवल राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम जैसे पुनर्वितरण पर जोर देने वाले सुधारों के लिए ही बनी. वैश्विक वित्तीय संकट के बाद विकास धीमा हुआ और पुनर्वितरण पर केंद्रित सरकार के फोकस से राजकोषीय स्थिति पर दबाव आया. 2012 में वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के नेतृत्व में, यूपीए ने व्यापक आर्थिक स्थिरता बहाल करने पर फोकस करना शुरू किया. मोदी सरकार ने शुरू में इस प्रक्रिया को जारी रखा, जिसका उद्देश्य वित्तीय खर्चों को नियंत्रण में रखना और पिछले कई बजटों में हुई विंडो-ड्रेसिंग (ऊपरी सजावट) को बंद करना था. उसने महंगाई पर अंकुश लगाने की आरबीआइ की पहल को मंजूरी दी. सरकारी बैंकों में तेजी से बढ़ते डूबत कर्ज ने बैंकों की कर्ज देने की ताकत को कमजोर कर दिया और सरकार ने आरबीआइ के चलाए सफाई अभियान को इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (आइबीसी) को पारित करके समर्थन दिया. भारतीय बाजार को एक करने और कर अनुपालन में सुधार के मकसद से जीएसटी के साथ-साथ रियल एस्टेट क्षेत्र की गंदगी को साफ करने के लिए बनाया गया रियल एस्टेट (विनियमन) अधिनियम यानी रेरा भी देश के संस्थागत ढांचे में सुधार की दिशा में किए गए बेहतर प्रयास थे.मगर, जैसा यूपीए सरकार के पर्यावरण नियमन में सुधार के साथ हुआ, मोदी सरकार ने भी पाया कि मौजूदा प्रचलन को बदलने की कोशिश वाले सुधारों के परिणाम अपेक्षित नहीं रहे हैं. उनसे विकास कार्यों की गति बाधित होती है. मसलन, जब प्रमोटरों को लगने लगा कि दिवालिया होने के कारण उन्हें अपनी फर्मों से हाथ धोना पड़ सकता है तो उन्होंने (सही ही) बैंक ऋणों को जोखिम पूंजी मानना बंद कर दिया. बैंकर भी जोखम विमुख हो गए क्योंकि उन्होंने देखा कि अब उन्हें नुक्सान को स्वीकार करना पड़ेगा और वे इसे आगे उत्तराधिकारी के सिर नहीं डाल सकते. इसका सीधा मतलब था कि अब जोखिम पूंजी के नए स्रोतों को ढूंढने की जरूरत थी, सुधारों से पल्ला झाड़कर नहीं, जैसा प्रभावित पक्ष सुझा रहे थे, बल्कि और अधिक सुधारों के साथ आगे बढऩे की जरूरत थी.मसलन, कॉरपोरेट गवर्नेंस में सुधार करने और विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने या भारतीय बीमा कंपनियों और पेंशन फंडों की मूल्यांकन क्षमताओं को बढ़ाकर उन्हें अधिक जोखिम लेने की अनुमति देने के कदम उठाए जाते. इसका यह भी मतलब था कि सरकार को भूमि अधिग्रहण आसान बनाकर और आवश्यक मंजूरी देकर परियोजनाओं को जोखिम से बाहर लाना था. दूसरे शब्दों में, विकास को गति देने वाले सुधारों की आवश्यकता थी. सरकार को अपने कदमों के अनपेक्षित परिणामों को स्वीकार करना था और सुधार कार्य को आगे बढ़ाना था. इस मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड मिला-जुला रहा है. मसलन, सरकार ने जीएसटी कानून को संसद में पास कराने में तो पर्याप्त राजनैतिक कौशल दिखाया, लेकिन अमल के मामले में काफी चूक की गई. सरकार ने बेशक इसमें सुधार की जरूरत समझी. लेकिन, जीएसटी प्रक्रियाओं और दरों में बार-बार बदलावों से भ्रम और अनिश्चितता की स्थिति ही बढ़ती गई और उसके अनुपालन में दिक्क्तें आईं. मसलन, वाहनों पर जीएसटी दरों में कमी आने की संभावना से शायद हाल के दिनों में ऑटो बिक्री में गिरावट आई. इसके अलावा, फॉलो-अप भी गलत दिशा में रहे- इंस्पेक्टरों को वाहनों को रोकने और उनकी तलाशी की शक्तियां दी गईं, जिससे इंस्पेक्टरों की मनमानी को शह मिली. जीएसटी से कर संग्रह अनुमान से काफी कम है, और आर्थिक वृद्धि का लाभ उससे काफी कम है, जितना होना चाहिए था. केंद्र ने राज्यों से इस कानून के प्रति रजामंदी हासिल करने केलिए न्यूनतम राजस्व गारंटी की पेशकश की और इससे राजकोष पर और दबाव बढ़ा. कम से कम जीएसटी के सिस्टम में सुधार की सरकारी कोशिशें जारी हैं, अलबत्ता जरूरत अनुभव के आधार पर एक स्पष्ट मध्यम अवधि की योजना बनाने की है जिसमें निरंतर अल्पकालिक सुधार की जगह साफ तौर पर बताया जाए कि क्या और कब तय किया जाएगा क्योंकि निरंतर संशोधनों से अनिश्चितता बढ़ती है. सरकारी बैंकों के कामकाज में सुधार के लिए बैंक बोर्ड ब्यूरो जैसी संस्था बनाने की कोशिशों को नौकरशाही के मकडज़ाल और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण धक्का पहुंचा है. सरकारी बैंकों के बोर्ड में स्वतंत्रता बहुत कम होती है, और वित्त मंत्रालय के बैंकों के विलय के फरमान से प्रबंधन की सारी ऊर्जा इसी में खप जाएगी जबकि इस ऊर्जा को डूबत कर्ज के बोझ को खत्म करने और समझदार तरीके से नए सिरे से ऋण देने पर लगाने की आवश्यकता है. मुद्रा ऋण और ऋण मेलों पर जोर देकर भविष्य के लिए और अधिक समस्याएं पैदा की जा रही हैं, यहां तक कि बैंकों को इन ऋणों पर बढ़ते गैर-भुगतान को नजरअंदाज करने के लिए नियामक छूट दी गई है. जहां तक कारोबारी माहौल, भूमि अधिग्रहण, श्रम और सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका से जुड़े अधूरे सुधारों की बात है, तो मोदी सरकार कायरता का ही परिचय दिया है. शुरुआत में, सरकार ने इन सुधारों पर दृढ़ दिखाई दी. लेकिन जैसे ही विपक्ष ने सरकार पर कारोबारियों की शुभचिंतक होने का आरोप लगाना शुरू किया, सरकार ने इन सुधारों को प्राथमिकता सूची में नीचे सरकाना शुरू कर दिया. विश्व बैंक के 'कारोबारी सहूलियत' संकेतकों पर भारत की रैंकिंग सुधरी, दिल्ली और मुंबई (जहां विश्व बैंक प्रगति को मापता है) में कुछ प्रक्रियाओं को सरल बनाया गया लेकिन बाकी जगहों पर कारोबारियों की राय से नहीं लगता हैं कि बुनियादी परेशानियां घटी हैं. वाजपेयी युग के सुधारों के लाभ अब लगभग समाप्त हो गए हैं और विरासत में मिली समस्याओं को दूर करने की कोशिश नहीं होने से आर्थिक वृद्धि की रफ्तार काफी धीमी हो गई है.यूपीए की तरह ही मोदी प्रशासन के साढ़े पांच साल की सफलताएं पुनर्वितरण में रही हैं. जन धन कार्यक्रम से हर किसी के लिए बैंक खातों की सुविधा दी गई, स्वच्छ भारत कार्यक्रम के तहत सभी के लिए शौचालय का निर्माण हो रहा है, उज्ज्वला योजना गरीब महिलाओं को गैस कनेक्शन वितरित कर रही है, आयुष्मान भारत गरीबों के लिए चिकित्सा सेवा शुरू कर रही है, जबकि ऋण मेलों के साथ साझा रूप से मुद्रा कार्यक्रम व्यवसाय उन सभी को ऋण देने की कोशिश कर रहा है, जिन्हें इसकी आवश्यकता है. सरकार ने यूपीए सरकार के प्रमुख कार्यक्रम मनरेगा पर भी लगातार खर्च बढ़ाया है.पुनर्वितरण एक योग्य लक्ष्य है और इनमें कई कार्यक्रमों ने गरीबों को लाभान्वित किया है. हालांकि, मजबूत राजस्व वृद्धि के बिना खर्च में लगातार वृद्धि से सरकारी खजाने में गिरावट आई है, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि अब सरकारी ऋण के मूल्य को कम करने के लिए मुद्रास्फीति उपलब्ध नहीं है. यहां तक कि नियंत्रक और महालेखा परीक्षक को भी एक बार फिर से सरकार को ऑफ-बैलेंस शीट राजकोषीय अनियमितताओं को खत्म करने के लिए कहना पड़ा है. दरअसल, निजी क्षेत्र पर अब दबाव बढ़ रहा है क्योंकि कई सरकारी संस्थाएं अपना खर्च कम दिखाने के लिए भुगतान को दबाए रखती हैं. कहां चूक और क्या गड़बड़ी हुई, यह समझने के लिए हमें पहले मौजूदा सरकार के केंद्रीकृत स्वरूप पर गौर करना होगा. न सिर्फ फैसले, बल्कि आइडिया और योजनाएं भी प्रधानमंत्री के आसपास एक छोटी बिरादरी और प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से निकलती हैं. यह बिरादरी पार्टी के राजनैतिक और सामाजिक एजेंडे को साधने में जुटी रहती है. ये एजेंडे पूर्व निर्धारित हैं और यह बिरादरी उसमें पारंगत है. आर्थिक सुधारों पर इसका ध्यान कम है, शीर्ष पर यह एजेंडे की स्पष्टता भी नहीं है और अर्थव्यवस्था राज्य के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कैसे काम करती है, इसकी समझ भी कम है.इसके अलावा, राजनैतिक और सामाजिक एजेंडे के प्राथमिकता हासिल करने की एक वजह शायद यह भी है कि सत्ता का केंद्र इसके साथ अधिक सहज अनुभव करता है और इसके पास दोनों को साधने के लिए राजनैतिक कौशल और दिमागी रुझान पर्याप्त नहीं है. विशेष रूप से, राजनैतिक और सामाजिक एजेंडे पर अमल के लिए राजनैतिक ताकत जुटाने की जरूरत होती है, जिसे लोकलुभावन आर्थिक उपायों से हासिल किया जाता है. हालांकि विकास, अक्सर घोषित उद्देश्य तो रहता है लेकिन जैसे ही यह एहसास होता है कि इसके लिए उठाए कदमों की राजनैतिक कीमत ज्यादा उठानी पड़ सकती है, उसका महत्व दूसरे स्थान पर चला जाता है. अत्यधिक केंद्रीकरण काम कर सकता है, बशर्ते उसके साथ केंद्र में एक सुसंगत आर्थिक दृष्टिकोण हो. पिछली सरकारें असंगत गठजोड़ की भले रही हों लेकिन वे लगातार आर्थिक उदारीकरण की राह पर बढ़ती रहीं और जहां कमजोर पक्ष देखा, सरकार के कदम पीछे खींचे और प्रतिस्पर्धा को बढ़ाया. मोदी सरकार सत्ता में 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन' के नारे के साथ आई. इस नारे को अक्सर गलत समझा जाता है. इसका अर्थ यह था कि सरकार चीजों को ज्यादा कुशलता से करेगी, न कि लोग और निजी क्षेत्र को कुछ अधिक करने के लिए मुक्त किया जाएगा. सरकार ने ऑटोमेशन की ओर तो वाजिब कदम बढ़ाए- लाभार्थियों तक लाभ का प्रत्यक्ष हस्तांतरण महत्वपूर्ण उपलब्धि है- लेकिन कई क्षेत्रों में सरकार की भूमिका का विस्तार हुआ है, घटा नहीं है.ऐसा अति केंद्रीकरण, ताकतवर मंत्रियों की गैर-मौजूदगी और सुसंगत मार्गदर्शक नजरिए की कमी से यह तय करता है कि सुधार के प्रयास केवल तभी आगे बढ़ते हैं जब पीएमओ उन पर फोकस करे और जैसे ही उसका ध्यान अन्य मुद्दों पर की ओर मुड़ता है, उससे फोकस हट जाता है. अक्सर, ऐसे प्रयास बड़ी नीतियों की तरह आते हैं क्योंकि समस्याएं बड़ी होती हैं और उन पर महत्वपूर्ण कदम उठाने की जरूरत होती है- इसलिए हमें नोटबंदी, बैंकों के विलय, कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती जैसे बड़े हल्ले वाले कदम देखने को मिलते हैं. हालांकि, जरूरी नहीं है कि ऐसे भारी बदलावकारी कदम सही समय पर या किसी बड़े नजरिए के साथ उठाए गए हैं, इसलिए उनका आर्थिक लाभ भी कमतर हुआ. इसके अलावा, अनपेक्षित परिणामों से निपटने के लिए फॉलोअप कार्रवाई भी अपर्याप्त है क्योंकि संबंधित मंत्रालयों को शक्तिहीन बना दिया गया है.मसलन, मेक इन इंडिया पहल को ही लें जिसका उद्देश्य भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को आकर्षित करना है. टैरिफ और करों में लगातार और निरर्थक बदलाव, साथ ही साथ घरेलू कंपनियों के हितों को साधने के लिए नियमों में बदलाव ने इसकी गंभीरता को समाप्त कर दिया. ऐसा ही एक मामला आरसीईपी व्यापार समझौता है, जिसमें शामिल होने से भारत का इनकार, अचानक लिया हुआ फैसला लगा. भारत शामिल नहीं होता है (हालांकि यह अभी भी हो सकता है), तो इससे भारत के एक कम आकर्षक निवेश गंतव्य बनने का जोखिम है. विदेशी निवेशक भारत में निवेश करने के लिए कतार बांधे नहीं खड़े हैं- एफडीआइ डॉलर के मामले में आज 2007-2008 की तुलना में बहुत अधिक नहीं है, भले ही अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी हो गई है [ग्राफिक देखें:एफडीआइ]. दुर्भाग्य से, घरेलू व्यवसायों से तो निवेश आ नहीं रहा, और निवेश में यह ठहराव इस बात का सबसे मजबूत संकेत है कि कुछ बड़ी भारी चूक तो हुई हैशुरुआत समस्या की भयावहता को पहचानने से होनी चाहिए, हर भीतरी या बाहरी आलोचक को राजनीति से प्रेरित न बताएं. यह मानना बंद कर दें कि समस्या अस्थायी है और असहज करने वाली खबरों और असुविधाजनक सर्वेक्षणों को दबाने से समस्या दूर हो जाएगी. इसके अलावा, भले ही कुछ समस्याएं विरासत में मिली हों, लेकिन इस सरकार को भी सत्ता में आए साढ़े पांच साल हो चुके हैं और अब तक उसे हल कर दिया जाना चाहिए था. प्रशासन के तौर-तरीकों में बदलाव के साथ बड़े पैमाने पर नए सुधारों की आवश्यकता है. आर्थिक विकास के लिए विकेंद्रीकरण अहम है. केंद्र को सुधारों को दिशा और राजनैतिक प्रोत्साहन देना है, वह हर लगाम थामे नहीं रह सकता. उसे अपने मंत्रियों को ताकत देने से शुरुआत करनी होगी, और राज्यों को भी साथ लेना होगा क्योंकि कई कार्य राज्य के समर्थन से ही हो सकते हैं. राज्यों का भरोसा फिर हासिल करने के लिए, केंद्र पंद्रहवें वित्त आयोग की शर्तों में संशोधन करके शुरुआत कर सकता है, जो पिछले आयोगों के राजस्व हस्तांतरण की प्रक्रिया को उलटने पर जोर देता लगता है. एक सुसंगत एजेंडे में निम्न बातें शामिल होंगी:फैलती आग को बुझाएंनिर्माण, रियल एस्टेट और इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र तो गहरी मुसीबत में हैं और इन्हें कर्ज मुहैया कराने वाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की हालत भी पतली है. इससे ग्रामीण क्षेत्रों को झटका लग रहा है, जहां अतिरिक्त आय के लिए भूमि की बिक्री और निर्माण कार्यों में रोजगार का सहारा होता है. इसमें कोई शक नहीं, कुछ शुरुआती तनाव कम हुए हैं, खासकर अच्छे प्रबंधन वाली एनबीएफसी में. फिर भी बहुत-सी एनबीएफसी अभी भी समस्याओं से जूझ रही हैं. ये जितने लंबे समय तक समस्याओं में घिरी रहेंगी, उतना ही ज्यादा नुकसान होगा और यही संभावना अधिक है कि समस्या की जद में वे बैंक आ जाएंगे जिन्होंने एनबीएफसी के साथ-साथ निर्माण परियोजनाओं के लिए ऋण दिया है. इसमें भरपूर सरकारी पैसा डालने के बजाए, पहले इस सेक्टर को साफ करना होगा और शुरुआत एनबीएफसी से होगी, लेकिन संकटग्रस्त बड़े डेवलपर भी इसकी जद में होने चाहिए. शुरुआत यहां से हो सकती है कि आरबीआइ बड़ी एनबीएफसी कंपनियों की संपत्ति की गुणवत्ता की समीक्षा करे, और उसे क्लीन चिट दे जिसका पूंजीकरण बेहतर हो. जिसकी पूंजी कम है, उसे जल्द से जल्द पूंजी जुटाने को कहे और जो महंगी दर पर पूंजी के प्रबंध में असमर्थ हैं उन्हें सरकार समर्थित फंड से पूंजी दिलाई जाए. सरकार समझदारी से दिवालिया संहिता को एनबीएफसी में लागू कर रही है. इसके समानांतर, जो डेवलपर डिफॉल्ट कर रहे हैं, उन्हें फास्ट-ट्रैक दिवालिएपन में डाल दिया जाना चाहिए और सरकार समर्थित फंड (अगर कहीं और से फंड उपलब्ध नहीं है) से सुपर-प्राथमिकता वाले ऋण उपलब्ध कराए जाने चाहिए ताकि वे परियोजनाओं को पूरा कर सकें. रियल एस्टेट डेवलपरों पर लगातार कुछ दबाव बनाए रखा जाना चाहिए, विशेष रूप से उन पर जो अनबिकी जायदाद के बोझ से राहत के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं. औने-पौने दाम पर जायदाद को बेचकर निकलना हालांकि, किसी के हित में नहीं है.इसी तरह अटकी पड़ीं इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में जान फूंकने के लिए भी ध्यान दिया जाना चाहिए. बिजली क्षेत्र में विशेष ध्यान देने की जरूरत है, जहां बिजली वितरण कंपनियों के सुधार का सरकार का उदय कार्यक्रम पटरी से उतर गया है. इस क्षेत्र में निवेश का रुकना और बिजली पैदा करने वाली मौजूदा कंपनियों का संकट देश में विकास को अवरुद्ध करेगा क्योंकि बिजली का उत्पादन आवश्यकता पडऩे पर तुरंत नहीं बढ़ाया जा सकता. केंद्र और राज्यों को मिलकर यह तय करना चाहिए कि बिजली की कीमत उचित तय की गई है, उसकी खपत की सही रिकॉर्डिंग हो रही है और पिछले अनुबंधों का पालन किया जाता है ताकि उत्पादकों के मन में यह भरोसा बने कि उनके नुक्सान की भरपाई की जाएगी. देश के जिस राज्य में इसकी सबसे बढिय़ा व्यवस्था लागू है उसे हर राज्य के साथ साझा किया जाना चाहिए.राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों, विशेष रूप से ग्राहकों से जुड़ी इकाइयों, के भीतर और अधिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए. मसलन, उनके कुछ कार्यों को टुकड़ों में बांटकर और हो सके तो कुछ काम को निजी हाथों में सौपकर. अन्य बाहरी राज्य वितरण कंपनियों के जरिए भी प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित किया जा सकता है-जिसमें उत्पादकों को राष्ट्रीय ग्रिड पर उच्चतम बोली लगाने वाले को बेचने की अनुमति देना भी शामिल है. पहले की तरह, केंद्र सुधारों के लिए बोनस की पेशकश कर सकता था, लेकिन उस तरह नहीं जैसा उदय में है, ऐसा तभी करना चाहिए जब कुछ परिणाम भी सामने आने लगें.अंत में, दूरसंचार क्षेत्र विशेष उल्लेख के योग्य है क्योंकि कभी तेजी से बढ़ता यह क्षेत्र आज गहरे संकट में है और देश के अधिकांश हिस्सों में एकाधिकार या फिर दो कंपनियों के अधिकार की ओर बढ़ रहा है. अल्पावधि में, एकमात्र उद्देश्य इस क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिद्वंद्वियों को संरक्षित करने का होना चाहिए—एक बार फिर, केंद्र इस क्षेत्र की बढ़ती समस्याओं पर फिलहाल कोई ध्यान नहीं दे रहा और यह समस्या तेजी से गंभीर होती जा रही है. दीर्घावधि में, भारत को अपनी नियामक प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए और इस क्षेत्र में एकसमान प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए. देश में फिर से सक्रिय सुधार कार्यक्रम की आवश्यकता है जो पूंजी, भूमि और श्रम बाजार के उदारीकरण पर केंद्रित हो. कृषि, निर्माण और बिजली जैसे क्षेत्र, जिससे आज परेशानी के दौर में हैं, अगर उन पर उचित ध्यान दिया जाए तो वे विकास के इंजन बन सकते हैं.कृषि सुधारों में यह तय किया जाना चाहिए कि बीज, प्रौद्योगिकी, बिजली, वित्त और बीमा वगैरह आसानी से उपलब्ध हो सके. किसानों को जमीन पट्टे पर देने और ट्रैक्टर जैसे संसाधनों के लिए सहकारी साझेदारी को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. सुधारों ऐसे हों जो किसान को गोदामों, ग्रामीण उद्योग और अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुंच आसान हो जाए, चाहे यह परिवहन के जरिए या इंटरनेट के जरिए हो. जब ये सुधार लागू किए जाएं तो मूल्य निर्धारण और खरीद सहित उत्पादन के हर चरण में निरंतर और सरकार के हस्तक्षेप की प्रथा समाप्त की जानी चाहिए. इसकी अधिकांश भरपाई किसानों को प्रति एकड़ के हिसाब से सीधे नकद हस्तांतरण के जरिए की जानी चाहिए. बड़ा लक्ष्य कुछ किसानों को कृषि से बाहर निकलने में सक्षम बनने का होना चाहिए, जिससे शेष किसान बड़े पैमाने पर पैदावार का लाभ अधिक से अधिक ले सकें.आज भूमि अधिग्रहण बेहद कठिन है, जो केवल राजमार्गों और राजमार्गों के निर्माण में ही नहीं, बल्कि औद्योगिक संयंत्रों, ऑफिस पार्कों और किफायती आवासों के निर्माण में भी बाधा डालता है. देश को विशेष रूप से सबसे गरीब राज्यों में भूमि के मानचित्रण और स्वामित्व अधिकार स्थापित करने की प्रक्रिया में तेजी लाने की आवश्यकता है. इसके लिए भूमि की ज़ोनिंग को निर्धारित करने और बदलने की एक अधिक पारदर्शी प्रक्रिया स्थापित करने की आवश्यकता है, साथ ही स्वामित्व में बदलावों को दर्ज करना, यह पहचानते हुए कि कुछ कृषि भूमि का अनिवार्य रूप से विकास के लिए उपयोग करना होगा. अंत में, जबरन भूमि अधिग्रहण अपवादस्वरूप ही किया जाना चाहिए, केंद्र को भूमि अधिग्रहण पर कानून में संशोधन के लिए राज्यों में अमल में लाई जा रही प्रक्रियाओं में से सर्वोत्तम को ध्यान में रखना चाहिए ताकि विक्रेता के हितों की रक्षा करते हुए इसे लागू करना आसान हो जाए.अर्थशास्त्री अरविंद पानगडिय़ा ने अक्सर दोहराया है कि भारत को विशाल कंपनियों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, जिनकी उत्पादकता भारत को प्रतिस्पर्धी बनाने में सक्षम होगी. यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रम अनुबंधों को अधिक लचीला बनाना होगा. आज, औद्योगिक फर्म अपने कर्मचारियों को एक साल के बाद स्थायी करने को मजबूर हैं, या फिर वे कर्मचारियों को अल्पकालिक अनुबंधों पर रखती हैं और समय-समय पर उन्हें निकाल भी देती हैं ताकि कर्मचारियों के पास स्थायी होने का कोई दावा न हो. इसी एकमात्र उपलब्ध विकल्प के जरिए नियोक्ता कर्मचारियों को ज्यादातर ठेके पर या फिर अस्थाई रखना पसंद करते हैं, ताकि उन्हें श्रमिकों के प्रशिक्षण पर ज्यादा निवेश न करना पड़े और श्रमिकों के लिए नौकरी की सुरक्षा बहुत कम होती है. सरकार को यूनियनों और नियोक्ताओं के साथ विचार-विमर्श के बाद, एक मध्यवर्ती अनुबंध का रास्ता बनाने के लिए कानून में संशोधन की आवश्यकता है, जहां श्रमिकों को समय के साथ अधिकार प्राप्त होते हैं (जैसे नौकरी से हटाने पर अधिक से अधिक हर्जाना) लेकिन नौकरी स्थायी न हो. मौजूदा स्थायी कर्मचारियों को इसके दायरे से बाहर रखा जा सकता है. प्रतिस्पर्धा अधिक घरेलू दक्षता के लिए एक प्रोत्साहन है. देश को टैरिफ कम करके और मुक्त व्यापार समझौतों में शामिल होकर घरेलू प्रतिस्पर्धा को लगातार बढ़ाने की आवश्यकता है. आज निर्यात मुख्य रूप से आयातित वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार करके उसे फिर से बाहर भेजने का है और व्यापार बाधाएं अधिक होंगी तो भारत, मेक इन इंडिया को बहुत आगे नहीं बढ़ा सकेगा. वास्तव में, 1990 के दशक में शुरू हुए स्थिर व्यापार और निवेश उदारीकरण को उलटना, भारत की अर्थव्यवस्था को कम वार्षिक वृद्धि पर वापस ले जाना ही होगा. जो लोग यह तर्क देते हैं कि भारत गैर-प्रतिस्पर्धी है, उन्हें इतिहास में झांकना चाहिए जो कहता है कि किसी को गैर-प्रतिस्पर्धी बनाए रखने का सबसे सटीक तरीका है उसके लिए प्रतिस्पर्धा की राह में ऊंची बाधाएं खड़ी कर देना. भारत जितनी बाधाओं को पार करता जाएगा, उसका व्यवसाय क्षेत्र खुद को नए सिरे से ढालेगा, नई ऊर्जा पाएगा. यह आर्थिक धर्मशास्त्र नहीं है, यह भारत का अपना अनुभव रहा है. अधिक निवेश आकर्षित करने के लिए यह जरूरी है कि भारत में कराधान और नियम-कायदों में बदलावों का अनुमान लगाना आसान हो. बदलाव नौकरशाही के संदिग्ध तरीकों और बेतुके तर्कों या कुछ खास निहितस्वार्थों के दबाव में न होकर, खुली चर्चा के बाद होने चाहिए. प्रस्तावित बदलावों को टिप्पणी, बहस के लिए सार्वजनिक किया जाना चाहिए और लागू किए जाने के बाद उद्योगों को उन्हें अपनाने के लिए समय भी दिया जाना चाहिए. भारत में कुछ नियामक एजेंसियां पहले से ही इस प्रक्रिया का पालन करती हैं, दूसरों को भी ऐसा ही करने की आवश्यकता है. लागत, प्रतिस्पर्धा और उत्पादकता पर प्रत्येक नए महत्वपूर्ण विनियमन के प्रभाव का मूल्यांकन करने वाली एक स्वतंत्र निगरानी आॢथक एजेंसी (प्रतियोगिता आयोग की तरह) का गठन भी उचित कदम हो सकता है जो जहां आवश्यक हो, वहां फैसलों पर पुनर्विचार को प्रोत्साहित करे. इससे निवेशकों में विश्वास बढ़ेगा कि बदलाव उचित हैं और राहत के लिए वे अप्रशिक्षित न्यायपालिका की शरण में जाना कम करेंगे.न्यूनतम सरकार का मतलब ऐसी सरकार है जो अपनी लगाम ढीली रखे और चीजों को अधिक पारदर्शी और पूर्वानुमान योग्य बनाए जहां इसकी वास्तव में आवश्यकता है. सरकार को, जहां संभव हो, सीधे व्यापार करने से पीछे हटना चाहिए. कई फर्मों के निजीकरण की हाल में हुई घोषणा स्वागतयोग्य है, लेकिन इसे मुख्य रूप से संसाधन जुटाने वाली कवायद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. न ही सरकारी संपत्ति को अर्थव्यवस्था में पहले से प्रभावी उद्यमी परिवारों को नहीं बेचा जाना चाहिए क्योंकि इससे आर्थिक शक्तियों के कुछ हाथों में सिमट जाने का खतरा पैदा होता है. इसके बजाय, निजीकरण करने वाली फर्मों के लिए एक शासन और प्रोत्साहन संरचना बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए ताकि उनके कर्मचारियों और परिसंपत्तियों का उपयोग राष्ट्रीय विकास के लिए सबसे अधिक उत्पादक रूप से किया जा सके. इसके लिए विचारशील डिजाइन की आवश्यकता होगी.सरकार हर जगह कदम पीछे नहीं खींचेगी. शासन में सुधार के लिए, सरकार को अपनी क्षमताओं का विस्तार करना पड़ सकता है, खासकर पर्यावरण नियमन या शिक्षा, भोजन और स्वास्थ्य की गुणवत्ता को नियंत्रित करने में. भारत सेवा क्षेत्र को नजरअंदाज नहीं कर सकता, जो विकास के नए इंजन बन सकते हैं और अपने लोगों को उन नौकरियों के लिए सक्षम बनाकर नए रोजगार के सृजन में सक्षम हो सकते हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पर्यटन और वित्त क्षेत्र में प्रवेश और निवेश की राह को आसान बनाकर और उपभोक्ता के अनुभव का ध्यान रखकर भारत के आर्थिक विकास का नया मार्ग खोला जा सकता है. मसलन, भारत अधिक से अधिक मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खोलने की सुविधा देता है तो भारत के डॉक्टर और अस्पताल अपने लोगों के साथ-साथ दुनियाभर के लोगों के भी अधिक से अधिक उपचार में सक्षम हो सकते हैं. इसके साथ ही मान्यता प्रक्रिया और सेवा की गुणवत्ता के नियमों को पारदर्शी और कठोर बनाना चाहिए ताकि नीम हकीमों और अयोग्यों को इससे दूर रखा जा सके. नियामकों को जानकारी एकत्र करने और ग्राहक अनुभव का आकलन करने के लिए नई प्रौद्योगिकियों के विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए, और खुद इनका अधिक उपयोग करना चाहिए.बहुत सारे आयोगों की रिपोर्टें और पुस्तकें हैं जिसमें इन मुद्दों में से प्रत्येक पर बहुत विस्तार से कहा गया है और सरकार को सलाह लेने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. बहुत सारे भारतीय विशेषज्ञ हैं, कुछ तो खुद सरकार में भी हैं, जो विशिष्ट क्षेत्रों में सुधार प्रक्रिया का मार्गदर्शन कर सकते हैं. सरकार सुधार प्रक्रिया को बढ़ाना चाहती है तो इसके लिए उसे अपने स्वयं के संस्थानों सहित विशेषज्ञों पर भरोसा करना होगा और उन्हें ताकतवर बनाना होगा.सत्ता में बैठे सभी लोगों की एक प्रवृत्ति होती है कि वे अधिक से अधिक नियंत्रण चाहते हैं, और यह सरकार कोई अपवाद नहीं है, खासकर अपने तय सामाजिक और राजनैतिक एजेंडे के मामले में. फिर भी एक स्वेच्छाचारी सरकार, अपनी जांच और कर एजेंसियों को अधिकार देकर अपने रास्ते में आने वाली बाधाएं दूर करने का प्रयास कर रही है, नए आख्यानों के जरिए विमर्श को नई दिशा दे रही है, अपने स्वयं के अधिकारियों को पंगु बना देती है जो भविष्य की सरकारों द्वारा इसी तरह के कार्यों की आशंका से डरे रहते हैं, और ऐसे में कारोबारी वर्ग भी दीर्घकालिक निवेश को लेकर अत्यधिक सतर्क रहता है. हमारी जांच और कर एजेंसियों को पेशेवर रूप से वास्तविक अपराधियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए—क्या यह चिंताजनक नहीं है कि हाल के वर्षों में भी किसी भी बड़े बैंक धोखाधड़ीकर्ता को अब तक सलाखों के पीछे नहीं लाया जा सका है? हालांकि, पेशेवर होने का अर्थ यह भी है कि एजेंसियों को इस बात की खुली छूट नहीं होनी चाहिए कि वे बेवजह धर-पकड़ के अभियान छेड़ें, सभी व्यवसाय को शक की नजर से ही देखें और निश्चित रूप से यह धारणा भी नहीं बननी चाहिए कि एजेंसियों का उपयोग राजनैतिक प्रतिशोध के लिए किया जा रहा है. फौरी चुनौती ग्रामीण क्षेत्रों में गहराते संकट के साथ, भारत मंदी के बीच खड़ा है. हालांकि इसी बीच, अनंत नारायण जैसे आर्थिक टिप्पणीकार भारत के वास्तविक समेकित राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 9 से 10 प्रतिशत के बीच होने के अनुमान लगा रहे हैं |
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